इसकी नफरी पर आर ए एफ द्वारा पर्शिक्षित छह अफसर और १९ हवाई सिपाही (शताब्दिक तौर पर वायुयोद्धा) थे।
इसकी इन्वेंट्री में योजनाबद्ध नं. १ (थल सेना के सहयोग से) स्क्वाड्रन के ”ए” उड़ान (फ्लाइट) केन्द्र के रूप में द्रिग रोड स्थित चार वेस्टलैंड वापिती प्प्ए थल सेना को ओपरेशन बाइप्लेन शामिल थे।
भारतीय वायुसेना का विकास
साढ़े चार वर्ष के बाद ”ए” फ्लाइट ने बागी भिट्टानी जनजाति के लड़ाकों के विरुद्ध भारतीय सेना के ऑपरेशनो मे सहायता करने के लिए उत्तरी वजीरिस्तान में मिरानशाह से पहली बार किसी लड़ाई में भाग लिया।
इसी दौरान अप्रैल १९३६ में पुराने वापिती वायुयानों से एक ”बी” फ्लाइट गठित की गई। परंतु जून १९३८ में जाकर ही ”सी” फ्लाइट का गठन हो पाया जिससे नं. १ स्क्वाड्रन की नफरी में प्रत्यक्ष तौर पर पर्याप्त वृद्धि हुई।
द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने तक यही एकमात्र भारतीय वायु सेना फार्मेशन रही, हालांकि इसके कार्मिकों की संखया अब तक बढ़कर १६ अफसरों और ६६२ वायुसैनिकों तक हो़ गई थी। १९३९ में चैटफील्ड समिति द्वारा भारत की रक्षा से संबंधित समस्याओं का फिर से मूल्यांकन किया गया।
इस समिति ने भारत स्थित आर ए एफ (रॉयल एयर फोर्स) स्क्वाड्रनों में और अधिक उपस्कर शामिल करने का सुझाव तो दिया परंतु प्रमुख बंदरगाहों की सुरक्षा में सहायता करने के लिए स्वैच्छिक आधार पर पांच फ्लाइट गठित करने की योजना के अतिरिक्त और कोई ऐसा सुझाव नहीं दिया जो भारतीय वायु सेना के धीमे विकास में कोई तेजी ला सके।
इस आधार पर भारतीय वायु सेना की एक वॉलंटियर रिजर्व को प्राधिकृत किया गया, हालांकि प्रस्तावित तटीय रक्षा फ्लाइट (सी डी एफ) को उपस्करों से लैस करने का काम वायुयानों की उपलब्धता में कमी के कारण गति नहीं पकड़ सका।
फिर भी इस प्रकार की पांच फ्लाइटें गठित की गई, नं. १ का मद्रास में, नं. २ का मुम्बई में, नं. ३ का कोलकाता में, नं. ४ का कराची में और नं. ५ का कोचीन में। नं. ६ फ्लाइट का गठन बाद में विश्व्खापतन में किया गया।
हॉकर हार्ट मेंकन्वर्जन के बाद शामिल किए गए
भारतीय वायु सेना और आर ए एफ के नियमित कार्मिकों को शामिल कर बनाई गई इन फ्लाइटों में पूर्व-आर ए एफ वापिती और नं. १ स्क्वाड्रन भारतीय वायु सेना के हॉकर हार्ट मेंकन्वर्जन के बाद इसके द्वारा छोड़े गए वायुयान शामिल किए गए।
आखिरकार स्क्वाड्रन को एक वर्ष के भीतर ही अतिरिक्त पुर्जों की कमी के कारण वापिती वायुयानों पर वापस आना पड़ा और पुराने हो चुके वेस्टलैंड बाइप्लेन की कमी ऑडैक्स की एक फ्लाइट द्वारा पूरी की जाने लगी।
मार्च १९४१ के अंत में, नं. १ और नं. ३ तटीय रक्षा फ्लाइट (सी डी एफ) ने अपने वापिती वायुयान दे दिए जिनकी अगले महीने पेशावर में गठित की जा रही नं. २ स्क्वाड्रन के लिए मांग की गई थी, और इनके स्थान पर उन्हें कोलकाता के दक्षिण में स्थित सुंदरबन डेल्टा क्षेत्र की शगत में प्रयोग किए गए आर्मस्ट्रॉंग व्हिटवर्थ अटलांटा परिवहन वायुयान जारी किए गए।
इसी दौरान नं. २ सी डी एफ को कॉन्वॉय और तटीय शगत के लिए मंगाए गए डी एच ८९ डै्रगन रैपिड वायुयान दिए गए, जबकि नं. ५ सी डी एफ की नफरी में एकमात्र डी एच ८६ वायुयान शामिल हुआ जिसका प्रयोग इसने केप कैमरिन के पच्शिम क्षेत्र और मालाबार तट पर शगत के लिए किया।
इसी दौरान भारत में एक पर्शिक्षण ढांत्रा तैयार करना आवश्यक हो गया और आर ए एफ के उड़ान अनुशेदको को टाइगर मॉथ वायुयानों पर भारतीय वायु सेना वॉलंटियर रिजर्व कैडेट को अनुशेद देने के लिए उड़ान क्लब की जिम्मेदारी सौंपी गई।
ब्रिटिश इंडिया के सात और विभिन्न रजवाड़ों के दो उड़ान क्लबों में १९४१ के अंत तक ३६४ प्रशिक्षणार्थियों को प्रारंभिक उड़ान पर्शिक्षण प्राप्त करना था।
अगस्त १९४१ में कुछ हद तक आधुनिक सुविधाएं शामिल करने की शुरुआत हुई जब द्रिग रोड में नं. १ स्क्वाड्रन में वेस्टलैंड लाईसैन्डर वायुयान शामिल किए जाने लगे और आगामी नवंबर में यूनिट को पेशावर में बॉम्बे वार गिफ्ट फंड से १२ लाईसैन्डर वायुयानों की पूरी स्थापना (एस्टैब्लिश्मेंट) प्रदान की गई।
सितंबर १९४१ में नं. २ स्क्वाड्रन वापिती वायुयानों के स्थान पर ऑडैक्स वायुयानों से लैस हो चुकी थी और इसी तरह ऑडैक्स वायुयानों से लैस नं. ३ स्क्वाड्रन ०१ अक्तूबर को पेशावर में गठित की गई।
द्वितीय विश्व यु़द्ध के शुरू में भारतीय वायुसेना वायुयान टाइप की टुकड़ी
भारतीय वायुसेना वॉलंटियर रिजर्व (वी आर) को अब नियमित भारतीय वायु सेना शामिल कर लिया गया, व्यक्तिगत फ्लाइट ने प्रारंभ में अपनी तटीय रक्षा दर्जा को कायम रखा परंतु दिसंबर में जापान के युद्ध में शामिल होने पर नं. ४ फ्लाइट को चार वापिती और दो ऑडैक्स वायुयानों के साथ मॉलमीन से ऑपरेट करने के बर्मा भेज दिया गया। दुर्भाग्यवश फ्लाइट के छह में चार वायुयान जापान द्वारा की गई बमबारी में नष्ट हो गए और जनवरी १९४२ के अंत में मॉलमीन में नं. ३ फ्लाइट ने नं. ४ का स्थान ले लिया जिसे पूर्व आर ए एफ के चार ब्लेनहीम वायुयानों को लगभग अकेले ही रंगून बंदरगाह पर आने वाले पोतों को हवाई सुरक्षा प्रदान करनी थी।