स्वतंत्रता के बाद सोची-समझी साजिश के तहत एक भ्रम फैलाया गया कि अंग्रेजों के आने के बाद ही वास्तविक देश बना है। इस कारण से शिक्षा सहित सारी व्यवस्थाएं भी उनकी ही देन हैं, अन्यथा भारत तो गड़रियों की अंधश्रद्धा पर विश्वास रखने वाला देश था परन्तु वास्तविकता क्या है? शिक्षा क्षेत्र का ही विचार करते हैं तो पाते हैं कि हमारे यहां बहुत पहले से ही शिक्षा को महत्व मिला हुआ था। गांधीवादी विचारक श्री धर्मपाल ने अपनी पुस्तक ‘वट वृक्ष का बीज’ (द ब्यूटीफुल ट्री) में अंग्रेज अधिकारियों एवं विद्वानों के द्वारा लिखित दस्तावेजों को आधार बनाकर बताया है कि पूर्व पादरी विलियम्स एडम द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार तत्कालीन बंगाल राज्य में 1,00000 से अधिक विद्यालय थे। मद्रास प्रेसिडेन्सी में हर गांव में विद्यालय थे।
कह सकते हैं कि लगभग 1,000 वर्ष की गुलामी के बाद हमारे देश की शिक्षा की स्थिति यह थी तो इसके पूर्व तो इससे बहुत अधिक अच्छी स्थिति रही होगी। चीनी यात्री ह्वेनसांग जैसे अनेक विदेशी विद्वानों के कथन से यह बात और स्पष्ट होती है। उस समय विश्व में किसी को भी अच्छी शिक्षा प्राप्त करनी होती थी तो वह भारत आता था। जब दुनिया में विश्वविद्यालय की संकल्पना भी नहीं थी तब भारत में तक्षशिला, विक्रमशिला, नालन्दा आदि विश्वविद्यालय थे। परन्तु अंग्रेजों द्वारा भारत की शिक्षा की श्रेष्ठ परंपरा को जड़-मूल से नेस्तनाबूत करने के प्रयास के परिणामस्वरूप आज भी देश की शिक्षा की वास्तविक दिशा तय नहीं हो पाई है।
इस परिस्थिति में शिक्षा क्षेत्र में कार्य करने वाले संघ प्रेरित संगठनों ने सबसे पहला कार्य देश के लोगों, विशेष करके तथाकथित पढ़े-लिखे विद्वानों, के मानस को बदलने हेतु व्यापक जन-जागरण अभियान चलाया। इस अभियान के द्वारा देश में अंग्रेजों की शिक्षा व्यवस्था को बदलने का मानस तैयार करने का सफल प्रयास किया गया। इसके परिणामस्वरूप आज देश में शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन का वातावरण निर्माण हुआ है।
इसके साथ-साथ शिक्षा की भारतीय आधारभूत संकल्पनाओं की पुनस्स्थापना करने हेतु ठोस कदम उठाए गए। आज देश में शिक्षा को व्यवसाय का स्वरूप मान लिया गया है। ऐसी परिस्थिति में विद्या भारती सामान्य शुल्क लेकर शिक्षा देने में एक बड़ी भूमिका निभा रही है। विद्या भारती द्वारा पूरे देश में 13,000 से अधिक विद्यालय चलाए जा रहे हैं। ये विद्यालय शहर, नगर, कस्बा, गांव, देहात लगभग हर क्षेत्र में हैं। इन विद्यालयों में लाखों बच्चे पढ़ते हैं। इन विद्यालयों के जरिए विद्या भारती ने देश को बताया है कि शिक्षा व्यापार, व्यवसाय न होकर सेवा का माध्यम है।
इसी कड़ी में शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए। इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण की विद्या भारती ने अपने विद्यालयों में भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाकर व्यावहारिक रूप देने में काफी मात्रा में सफलता प्राप्त की है। शिक्षा मातृभाषा में होनी चाहिए, इस हेतु भारतीय शिक्षण मंडल सहित सभी संगठनों ने विभिन्न माध्यमों के द्वारा व्यापक जनजागरण करके देश में इस तथ्य को स्थापित करने का प्रयास किया है। शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के द्वारा इस हेतु भारतीय भाषा मंच एवं भारतीय भाषा अभियान प्रारंभ करके भारतीय भाषा पर कार्य करने वाले विभिन्न संगठनों एवं विद्वानों तथा भाषा प्रेमियों को एक मंच पर लाकर परिणामकारक कार्य प्रारंभ किया है।
सभी भाषाओं की जननी संस्कृत को मृतप्राय घोषित करने के प्रयास के विरुद्ध संस्कृत भारती ने देश में व्यापक जन-जागरण किया है। इसके लिए संस्कृत भारती साहित्य प्रकाशित करती है और देश-विदेश में संस्कृत संभाषण शिविरों का आयोजन करती है। इन आयोजनों के द्वारा संस्कृत भारती ने यह सिद्ध किया है कि संस्कृत मृतभाषा नहीं है, वरन् विश्व की सर्वश्रेष्ठ एवं प्राचीन भाषा है।
इसी प्रकार उच्च शिक्षा के संस्थानों में भारतीयता के आधार पर परिसर संस्कृति का विकास हो एवं आज का छात्र कल का जिम्मेदार नागरिक बने, इस हेतु अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद निरंतर काम कर रही है। परिषद छात्र शक्ति के द्वारा राष्ट्र शक्ति को सुदृढ़ करने में लगी है।
परिषद् से जुड़े हुए छात्र उच्च शिक्षा में भारतीयता को स्थापित करने हेतु संगोष्ठियों और परिचर्चाओं का सहारा ले रहे हैं, साथ ही समय-समय पर केन्द्र एवं राज्य सरकारों के समक्ष देश की शिक्षा नीति के संदर्भ में ठोस सुझाव भी प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके कई ठोस परिणाम भी सामने आए हैं।
शिक्षकों का ‘यूनियन’ न हो परन्तु संगठन हो, इस प्रकार का प्रयास अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के द्वारा किया जा रहा है। उनका ध्येय वाक्य है, ”राष्ट्र हित में शिक्षा, शिक्षा के हित में शिक्षक, शिक्षक के हित में समाज।” इस माध्यम से देश के शिक्षक मात्र कर्मचारी नहीं हैं, बल्कि वे आचार्य और गुरु की भूमिका में हैं। इसके लिए शिक्षक कर्तव्यबोध एवं गुरु वन्दना जैसे प्रेरणा देने वाले कार्यक्रमों के जरिए शिक्षकों को जागरूक किया जा रहा है।
शिक्षा में भारतीयता को लाने हेतु भारतीय शिक्षा मंडल अपने स्थापनाकाल से ही संगोष्ठियों, परिसंवादों के माध्यम से देश में वातावरण बनाने का काम कर रहा है। इस हेतु 1986 की नई शिक्षा नीति से लेकर वर्तमान में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्णय में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। साथ ही शिक्षा क्षेत्र में होने वाले अनुसंधान, देश की आवश्यकता के अनुसार गुणवत्तापूर्ण हो, इस दिशा में भी ठोस प्रयास प्रारंभ किए हैं।
शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में विकृतियां, विसंगतियां अंग्रेजों की देन हैं। दुर्भाग्य से इसी परंपरा को अपने ही देश के मार्क्स, मैकॉले के मानसपुत्रों ने आगे बढ़ाने का काम किया। पाठ्यक्रमों के जरिए देश की संस्कृति, धर्म, महापुरुषों और परंपराओं को अपमानित किया जा रहा था। इसके विरुद्ध शिक्षा बचाओ आन्दोलन ने आन्दोलन चलाया। परिणामस्वरूप पुस्तकों से ऐसे अंशों को हटाया गया। इसी प्रयास को आगे बढ़ाते हुए शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास का गठन करके देश की शिक्षा में नया विकल्प देने की दिशा में ठोस कार्य प्रारंभ किया गया। न्यास के द्वारा बहुत ही अल्प समय में शिक्षा के आधारभूत आयामों पर पाठ्यक्रम तैयार करने से लेकर वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में परिणामकारक प्रयोग प्रारंभ किए गए हैं। इससे भारतीयता के आधार पर शिक्षा के एक वैकल्पिक स्वरूप का चित्र स्पष्ट हुआ है और यह विश्वास निर्माण हुआ है कि शिक्षा क्षेत्र में भारतीयता के आधार पर परिवर्तन हो सकता है।
शिक्षा क्षेत्र में संस्था के रूप में कार्य 1948 से प्रारंभ हुआ, लेकिन संघ के स्थापनाकाल के तुरन्त बाद डॉ़ हेडगेवार जी की प्रेरणा से नागपुर में ही शैक्षिक संस्थाओं की शुरुआत हो गई थी। इसी प्रक्रिया को बढ़ाते हुए आज देशभर में अनेक स्वयंसेवकों द्वारा हजारों शैक्षिक संस्थाओं का संचालन किया जा रहा है। इसी प्रकार एकल अभियान के तहत वनवासी और दूरदराज के क्षेत्रों में हजारों एकल विद्यालय चलाए जा रहे हैं। वनवासी कल्याण आश्रम एवं राष्ट्र सेविका समिति के द्वारा भी अनेक विद्यालय चलाए जा रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इन संगठनों के ये प्रयास देश की शिक्षा के उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। एक प्रकार से संघ विचार से प्रेरित शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत संगठनों ने शिक्षा की आधारभूत संकल्पनाएं- चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व विकास, मूल्य आधारित शिक्षा, शिक्षा में नैतिकता एवं आध्यात्मिकता, शिक्षा की स्वायत्तता, मातृभाषा में शिक्षा, शिक्षा में भारतीय ज्ञान परंपरा का समावेश, पाठ्यक्रम में व्यावहारिकता, रोजगार सृजन करने वाली शिक्षा, शिक्षा व्यवसाय न होकर सेवा का माध्यम, आदर्श शिक्षकों का निर्माण आदि के सैद्धांतिक धरातल के विकास के साथ व्यावहारिक प्रयोग करके आदर्श प्रतिमान खड़े करने की दिशा में भी ठोस कार्य किया है। एक प्रकार से भारतीय शिक्षा के आधारभूत सिद्धांतों के साथ-साथ आधुनिकता के अनुरूप एक नई शिक्षा व्यवस्था देश में स्थापित हो, इस दिशा में कार्य किया है।
इसी प्रयास को आगे बढ़ाते हुए भविष्य में देश में शिक्षा प्राथमिकता का विषय बने, उपरोक्त चिन्तन एवं दिशा में कार्य करने वाली देश की शैक्षिक संस्थाओं को एक मंच पर लाना, शिक्षा, राजनीति एवं विचारधारा से ऊपर उठकर देश में सहमति बनाने का प्रयास करना, शिक्षा हेतु समाज और सरकार साथ मिलकर कार्य करें। सरकारी शैक्षिक संस्थाओं की गुणवत्ता सुधार हेतु विशेष प्रयास किए जाएं। इस प्रकार देश की शिक्षा का स्वरूप ऐसा बने कि शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र देश एवं समाज के उत्थान में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकें। इसके द्वारा भारत पुन: उत्तम चरित्र से युक्त संपन्न, समृद्ध एवं सशक्त देश बन सके, इस दिशा में कार्य करने की योजना प्रारंभ हो गई है। जब तक देश की शिक्षा नहीं बदलेगी तब तक देश में वास्तविक बदलाव असंभव है। इसी बदलाव के लिए संघ परिवार के अनेक संगठन दिन-रात कार्य कर रहे हैं।
(लेखक शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव हैं)